झारखण्ड के आदिवासियों के इन गांव में है जन्नत

रांची(झारखण्ड), 29 अक्टूबर 16 : इन दिनों पूरा देश दिवाली की तैयारियों में जुटा है, वहीं झारखंड के जमशेदपुर और उससे सटे ग्रामीण इलाकों में आदिवासी समुदाय के लोग सोहराय की तैयारियों में लगे हैं. प्रकृति पर्व सोहराय 30 नवंबर से 3 नवंबर तक मनाया जाएगा और उसके लिए हर घर को खूबसूरत पेटिंग से सजाया जा रहा है. दिलचस्प बात यह है कि पिछले दिनों एक सर्वे में झारखंड के ग्रामीण इलाकों को सबसे गंदा बताया गया था, लेकिन हकीकत उससे कितना अलग है ये जानना है तो सोहराय पर्व के इस मौसम में आप जमशेदपुर से सटे सालगाझुड़ी गांव जाकर देख आइए.
यहां के घरों की रंगीनी और सफाई आपको सोचने पर मजबूर कर देगी. ऐसे में लगता है कि यह गांव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत के सपने को बेहद खामोशी से पूरा कर रहा है. ये रंगीनी कुछ खास है. दीपावली नज़दीक है तो सोहराय भी दस्तक दे रहा है और जमशेदपुर से सटे सालगाझुड़ी गांव का प्रत्येक घर निहायत ही खूबसूरत पेटिंग से पट गया है. घरों के दरवाजे से लेकर दीवारों तक प्रकृति ही प्रकृति आपको नज़र आएगी. कला तो जैसे आदिवासियों में कूट-कूट कर भरी होती है. आखिर इन शेरों, फूल पौधों और जानवरों के चित्रों को देखकर अच्छे अच्छे पेंटर भी दंग रह जाएंगे. घर, उनके दरवाज़े, दहलीज़ और सड़क सब चकाचक और साफ-सुथरा है. शेर की पेटिंग्स बनाने वाले कुसुम मूर्मू कला के क्षेत्र में अपना मुकाम बनाना तो चाहते हैं पर कोई कद्रदान मिला नहीं है. वैसे इनको बहुत ज्यादा इसकी फिक्र भी नहीं. यही आदिवासीपना है. आर्थिक दिक्कतों में भी बेफिक्री के साथ जीना और साफ सुथरा रहना. ज्यादातर आदिवासी प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल करते हैं. पेंटिग में व्यस्त सालगाझुड़ी की फूलमनी हांसदा बताती हैं कि जमशेदपुर के बागबेड़ा, बादामपहाड़, तुरामडीह, कलियाडीह, करनडीह और अन्य इलाकों से मिट्टी लाकर रंग बनाए जाते हैं.
कुछ इलाकों से लाल मिट्टी, कहीं से सफेद, कहीं से हरा-नीला तो कहीं से गुलाबी-पीला मिट्टी लाई जाती है. जरूरत पड़ने पर परसुडीह बाजार से अन्य सामग्रियां आ जाती हैं. बाघमारा के ग्रामीण जल की निकासी देसी तकनीक से करते हैं. उसके लिए कम से कम दस फीट का गड्ढा खोदा जाता है जिसके भीतर इंच-बालू और अन्य प्राकृतिक सामग्रियां डाली जाती हैं. सबसे ऊपर इंटों को रखा जाता है. पानी से संबंधित सारे काम इसी जगह पर किए जाते हैं और इस तरह पानी ज़मीन के भीतर चला जाता है, फिर नाली का क्या काम? आदिवासी मानते हैं कि घर के सामने जूठा पानी या अन्य गंदगी नहीं डालनी चाहिए, क्योंकि वहां देवता का वास होता है. यही वजह है कि बाघमारा गांव हो या झारखंड का कोई आम गांव आदिवासी ग्रामीण घर के सामने वेस्ट वाटर डालते ही नहीं हैं बल्कि वे देसी तकनीक का इस्तेमाल घर के पिछवाड़े में करते हैं. इससे प्रदूषण नहीं होता क्योंकि नालियों का पानी बड़े नालों के जरिए नदियों में ही तो गिरता है तो फिर नदी तो गंदी हो ही जाती है ना? लेकिन देखिए झारखंड के आदिवासी देसी तकनीक का प्रयोग कर हमें ये संदेश दे रहे हैं कि गंदी नालियों की बजाए देसी तकनीक का इस्तेमाल कर हम अपने परिवेश को कैसे साफ सुथरा बना सकते हैं. सबसे बड़ी बात है कि ये परंपरागत देसी तकनीकें किसी सरकारी मदद की भी मोहताज़ नहीं हैं.