खामोश ! यह पुलिस राज है !!

नक्सल प्रभावित बस्तर से फिर एक पत्रकार की गिरफ्तारी की खबर आई है। पत्रकार प्रभात सिंह को पुलिस दो दिन पहले उठा ले जाती है और मंगलवार की शाम को पुलिस ने उसे अदालत में पेश किया और उसे न्यायिक रिमांड पर जेल भेज दिया गया। जिन मामलों में जेल भेजा गया वो पिछले साल अगस्त – सितम्बर के हैं। थोड़े – थोड़े दिनों के अंतराल में प्रभात सिंह के खिलाफ मामले दर्ज हुए हैं । इस पत्रकार को इन मामलों को लेकर कुछ कहना है लेकिन एक सवाल तो यही पूछा जाना चाहिए कि इतने दिनों तक खुले घूम रहे इस कथित अपराधी को पुलिस ने अब तक पकड़ा क्यों नहीं ? क्या इसलिए कि अभी उसका विवाद कुछ ऐसे लोगों के साथ हो गया जिन्हें लोग पुलिस के करीबी मानते हैं?
अभी चन्द रोज़ पहले ही बस्तर में पत्रकारिता के खतरों का जायज़ा लेने आई एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की एक टीम से मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह ने कहा था कि उन्हें पत्रकारों की चिंता है और नक्सलवाद से मुकाबला करने में मीडिया की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। लगता है रायपुर से बस्तर की दूरी आज भी उतनी ही है जितनी अविभाजित मध्यप्रदेश में भोपाल से बस्तर तक की दूरी थी! तब भी लोकतंत्र को बस्तर तक पहुँचने में वक्त लगता था और लगता है कि लोकतंत्र को आज भी बस्तर पहुँचने की जल्दी नहीं है! बस्तर में पत्रकारिता का पेशा किन खतरनाक चुनौतियों से घिरा है इसे दुनिया आज देख रही होगी ,बस्तर के पत्रकार तो हर रोज़ इन खतरों के बीच सांस ले रहे हैं। बस्तर की हवा इतनी अलोकतांत्रिक हो चली है कि वहां अब खुली हवा में सांस लेना भी किसी पत्रकार के लिए शायद मुश्किल हो गया है ! सलाम है उन पत्रकारों को जो इस दम घोंटू माहौल में भी पत्रकारिता कर रहे हैं। लेकिन आश्चर्य होता है कि आखिर सरकार को इस बात का एहसास क्यों नहीं होता? आश्चर्य होता है कि बस्तर के पत्रकारों के तीन-तीन बड़े आन्दोलनों और फिर सरकार के ठोस आश्वासनों के बावजूद बस्तर की पुलिस खुलेआम एक पत्रकार को उठा ले जाती है । सन्देश साफ़ है – खामोश ! यह पुलिस राज है !!
सन्देश साफ़ है – पुलिस के अनुकूल पत्रकारिता नहीं हुई तो पत्रकार सिर्फ और सिर्फ नक्सली ही होगा !!! सन्देश साफ़ है – होगा लोकतंत्र नारों में ,बस्तर में तो वही होगा जो पुलिस मन भाए !!! सन्देश साफ़ है कि अगर व्यवस्था के खिलाफ जाने की कोशिश हुई तो पत्रकार नक्सली ठहराया जाएगा और तब देशद्रोही तो वो स्वाभाविक रूप से हो जाएगा !
प्रभात सिंह के मामले में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह स्पष्ट नहीं था कि वो नक्सली है, देशद्रोही है, भ्रष्ट है कि महज व्यवस्था विरोधी होने का गुनाह भुगत रहा है। अभी तक जो ख़बरें मिलीं हैं उनके मुताबिक प्रभात सिंह के खिलाफ एक साल पहले कुछ मामले दर्ज थे और अब उन्हीं मामलों में उसकी गिरफ़्तारी हुई है। देशद्रोह का आरोप भी हो सकता है रात होते तक सामने आ जाए ! पुलिस हिरासत में रहते हुए प्रभात सिंह ने अपने साथी पत्रकारों को बताया कि बस्तर पुलिस के एक आला अफसर ने कुछ दिनों पहले ही उसे धमकी दी थी कि उनके पास उसकी पूरी कुंडली है !
किस-किस की कुंडली पर बैठी है पुलिस ?
बस्तर एक गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है। बस्तर ही क्यों? ये चुनौती तो इस देश के सामने है। ये चुनौती इस देश के लोकतन्त्र के सामने है ,संविधान के सामने है। ये चुनौती है संसदीय लोकतन्त्र के खिलाफ एक विचारहीन हिंसक राजनीति की। ये चुनौती है माओवाद की। दिल्ली से लेकर राज्य तक सरकार और सुरक्षा बल इस चुनौती का मुकाबला कर रहे हैं।लेकिन इस चुनौती का मुकाबला करने वाले केवल सरकारी लोग नहीं हैं। इस चुनौती को मुंहतोड़ जवाब तो बस्तर जैसे माओवाद प्रभावित इलाकों की जनता दे रही है, जो हर चुनाव में पहले से अधिक तादाद में पोलिंग बूथों पर मुस्तैद नज़र आती है। जनता के साथ ही खड़े हैं वो पत्रकार भी जिनके एक तरफ माओवाद की खाई है और दूसरी तरफ किसी भी दिन माओवादी समर्थक ठहराए जाने का खतरा। इन परिस्थितियों में अगर कुछ भी दांव पर है तो वो है पत्रकार की स्वतंत्रता, उसकी तटस्थता और लोकतन्त्र ! लोकतंत्र विरोधियों से कोई भी मुकाबला लोकतंत्र को खतरे में डालकर कैसे हो सकता है? और अगर ऐसा हो रहा है तो ऐसी लड़ाई की नीयत और विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे ! आज एक के बाद एक बस्तर में कोई न कोई पत्रकार कभी पुलिस तो कभी नक्सलियों के निशाने पर है। बस्तर में लोकतंत्र विरोधी नदी में पानी खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है। सरकार के तमाम आश्वासन इस अलोकतांत्रिक पुलिसिया बाढ़ में तिनके की तरह बहते नज़र आ रहे हैं । इस बाढ़ की चपेट में पत्रकारों से पहले बड़ी संख्या में आम आदिवासी भी आए हैं।
लोकतंत्र को ज़िंदा रखना है तो इन सब की आवाज़ उठाने की ज़रुरत है। लोकतंत्र को ज़िंदा रखना है तो लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को ही सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई वर्दी वाला महज़ अपना हिसाब चुकता करने की नीयत से इस तरह किसी को उठा ले जाने की हिम्मत ना करे ! बस्तर में ही नहीं बल्कि देश भर में छोटे-छोटे कस्बों में हज़ारों लाखों पत्रकार ऐसे हैं जो बिना किसी सुरक्षा कवच के अपने छोटे-छोटे व्यवसाय के साथ ही जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता करते हैं । बस्तर में भी ऐसे ही पत्रकार पत्रकारिता की जीवन रेखा हैं ।इन्हीं में एक है प्रभात सिंह । कल हो सकता है कि पुलिस यह ढूंढें कि प्रभात सिंह अधिमान्य पत्रकार था कि नहीं ? प्रभात या उस जैसे पत्रकार सरकार की मान्यता की हद से बहुत दूर हैं लेकिन उनकी ख़बरें उनकी मान्यता की निशानी हैं ।इस निशानी को पुलिस के बूटों तले रौंदने की कोई भी कोशिश किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक समाज में अस्वीकार्य है ।उम्मीद है सरकार ने सुना होगा ,उम्मीद है बस्तर में गरजने वाली हर तरह की बन्दूकों ने भी सुना होगा । ना सुना हो तो फैज़ अहमद फैज़ के शब्दों में सुन लें –
मताए-लौह-ओ-कलम छिन गयी तो क्या गम है,
कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने
ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या कि रख दी है
हर एक हलक-ए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने।
0 रुचिर गर्ग, सम्पादक, नवभारत (छग-ओडिशा)