स्त्री की परिभाषा को कुछ शब्दों में नहीं समाया जा सकता

नीरज कुमार महंत

ये बात तो हम सब जानते हैं कि स्त्री एक ख़ाली मकान को घर होने का एहसास दिलाती है चाहे घर मिट्टी का हो या संगमरमर का। ये ज़िम्मेदारी इतनी बड़ी होती है कि पुरुष चाहे कितनी भी कोशिश कर ले एक स्त्री के अपेक्षा कभी उनपर पूरी तरह से खरा नहीं उतर पाता।

साथ ही घर को घर बनाए रखने में उन्हें हर दिन सुबह शाम पूरी लगन से खुद को समर्पित करना पड़ता है। ऐसे में जब कोई स्त्री घर के साथ अपने कन्धों पर आजिविका का भी बोझ उठा लेती है तब जीवन संतुलित कर जी पाना उतना ही मुश्किल होता है जितना कि ख़ुद पतंग बन कर उड़ना भी है और उसकी डोर भी ख़ुद ही खींचनी है।

हम यहां बात कर रहे हैं अपने परिवार को सहारा देती उन स्त्रियों की जो हर मुश्किल घड़ी में परिवार के लिए सुरक्षा कवच बन कर हर वक़्त खड़ी होती हैं। वो स्त्रियां जो किसी पार्लर में, किसी दुकान में, किसी शो रूम में, किसी आॅफ़िस में और उन सब जगहों पर अपनी पहचान बनाने या अपने परिवार को आर्थिक बल देने के लिए काम करती हैं उन सब पर आज एक और बोझ आ गया है।

ये बोझ ख़ास कर उन मध्यम वर्गीय स्त्रीयों पर जिनके पास काम पर आने जाने के लिए सुविधा के नाम पर केवल आॅटो या रिक्शा का सहारा है। जैसा कि हम सब जानते हैं आजकल आॅटो का किराया किसी टैक्सी जितना हो गया है ऐसे हालात में, जहां ज़िंदगी लगभग पिछले ढाई महीने से थम सी गई थी, हज़ारों लाखों का रोज़गार या तो छिन गया या तो नहीं रहा वो कैसे इस बोझ से उबर पाएंगे।

अब जा कर धीरे-धीरे जन जीवन सामान्य हो रहा है पर इस व्यथा से कैसे निजात पाया जाए यह सवाल अब भी बना हुआ है।

आज ज़रूरत है हर वो स्त्री जो आज अपनी पहचान बनाने में लगी है इस मुश्किल समय में हमें जितना हो सके उनको विश्वास और भरोसा देना चाहिए कि सब बहुत जल्द ठीक हो जाएगा।